भारतीय संविधान निर्माताओं ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि भारत पर अंग्रेजी साम्राज्यवादी हुकुमत से स्वतंत्र होने के 75 वर्षोप्रांत भी भारतीय लोकतंत्र में इतने उतार-चढ़ाव होंगे। यूपी, एमपी, कर्नाटक, बंगाल आदि राज्यों मे भाजपा के अंदर अचानक क्यों घमासान मच रहा है ? उधर कांग्रेस की हालत भी कुछ ऐसी ही है। राजनैतिक पार्टियों की आन्तरिक कलह हाईकमान के लिए सरदर्द बन गई है। भारतीय जनता पार्टी के तीन मुख्य मंत्री आंतरिक कलह के शिकार हो चुके हैं। यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ भी इसकी आंच से बच नहीं पा रहे हैं। उधर बंगाल में मुकुल रॉय और राजीब बनर्जी की, भाजपा से त्रिनामुल में घर वापस ने बीजेपी के अंदर खट-पट की चर्चाओं को तूल दी है। इन निराशाजनक खबरों ने कार्यकर्ताओं का मनोबल कमज़ोर किया है।
गुजरात के पूर्व मुख्य मंत्री, विजय रूपानी, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के चहेते थे। फिर वहाँ भूपेंद्र पटेल को अचानक मुख्य मंत्री घोषित करने से सभी अचंभित हो गये। कोरोना काल में गुजरात में बहुत नुकसान हुआ। फिर पी.एम. नरेंद्र मोदी के 'गुजरात मॉडल' पर अनेक प्रश्न चिन्ह लगे। यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ की तो केंद्रीय नेतृत्व से ही ठनने की बात चर्चा में है। सूत्रों के अनुसार योगी आदित्यनाथ को डाः मोहन भागवत, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सरसंघचालक का समर्थन है। यद्यपि कि योगी आदित्यनाथ का ब्यान, "अब्बू जान सारा अनाज खा जाते थे," केंद्रीय नेतृत्व के लिए गले की हड्डी बना! इस ब्यान ने मुस्लिम समुदाय को ठेस पहुंचाई है। मुख्य मंत्री द्वारा इस प्रकार की भाषा शैली का प्रयोग नकारात्मक है। वैसे हिन्दु धर्म में माता-पिता को सर्वोत्तम सम्मान दिया जाता है। उसी प्रकार इस्लाम में भी 'अब्बू जान' पिता के लिए सम्मानित शब्द है। उधर राकेश टिकायत ने असुदुदीन औवेसी को 'भाजपाई चाचा जान' कहा है। पूर्व मुख्य मंत्री अखिलेश यादव ने भाजपा को मुद्दों से भटकने का आरोप लगाया है।
राहुल गांधी का कहना है कि 'जो नफ़रत करे वह योगी कैसा"? वास्तव में आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक मुद्दों से भटक रहें हैं हमारे नेतागण। एमपी में शिवराज सिंह चौहान के विरूद्ध मुहीम जारी है। कर्नाटक में येदुरप्पा को हटा कर, बासवराज बोमाई को जुलाई में मुख्य मंत्री बना दिया गया है। प. बंगाल में टीएमसी से आए नेताओं की घर वापसी होने से भाजपा को झटका लगा है। क्या भारतीय जनता 'पार्टी विद डिफरेंस' रह गई है? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जे.पी. नड्डा, तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व में पार्टी में सख्त अनुशासन है।
भाजपा शासित राज्यों से आ रही खबरें कुछ अलग ही कहानी बयां कर रही है। वो चाहे उत्तर प्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ हों या मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान या फिर कर्नाटक के पूर्व मुख्य मंत्री बी.एस. येदियुरप्पा- बीजेपी के इन सभी मुख्यमंत्रियों की छवि को बट्टा लगाने वाली खबरों ने हाईकमान को इन्हें हटाना ही उचित समझा है। उधर प. बंगाल विधासभा चुनाव के मनोनुकूल परिणाम नहीं मिलने के बाद तृणमूल कांग्रेस छोड़कर बीजेपी का रुख किए दिग्गज प्रादेशिक नेताओं को लेकर भी भाजपा में घबराहट का माहौल है। ऐसा क्यों है कि एक खास समय में ही भाजपा के अंदर इतनी ज्यादा उठापटक की खबरें आने लगी हैं ? क्या पार्टीें के केन्द्रीय नेतृत्व से राज्य के कार्यकर्ता असंतुष्ट हैं? दूसरी ओर क्या कांग्रेस पार्टी की भी यही हालत है? कांग्रेस की आंतरिक कलह पर नियंत्रण पाने के लिए प्रशांत किशोर की सहायता ली जा रही है। हरियाणा कांग्रेस में भूपेंद्र हुड्डा, कुमारी शैलजा, किरण चौधरी एवं अजय सिंह में नेतृत्व की होड़ जारी है। वैसे 2019 लोकसभा चुनाव में पानीपत और रोहतक लोक सभा चुनाव में दीपेन्द्र हुड्डा और पापा हुड्डा, दोनों ही पराजित हो गए। फिर दीपेन्द्र हुड्डा को राज्यसभा में मनोनीत किया गया। साधवी प्रगया से 2 लाख वोटों से, भोपाल में चुनाव हारने के उपरांत डिगगी राजा को राज्यसभा मे मनोनीत किया गया। सोनिया गांधी हारे हुये प्रत्याशियों को राज्य सभा में क्यों नियुक्त करती हैं? इससे कांग्रेस कार्यकर्ता असंतुष्ट हैं।
पंजाब में कुछ महीनों बाद ही विधानसभा के चुनाव होने हैं, ऐसे में कांग्रेस को पता है कि अगर जल्द ही वहां, नवजोत सिंह सिद्धू बनाम कैप्टन अमरिंदर सिंह की प्रतिस्पर्धा खत्म नहीं हुई तो पार्टी को भारी नुकसान झेलना पड़ेगा। हरीश रावत, कांग्रेस हाईकमान के पंजाब प्रभारी ने यह घोषित कर दिया है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में ही दो-तिहाई बहुमत से पंजाब में कांग्रेस की विजय होगी। उधर हरीश रावत के 'पंज प्यारे' वाले ब्यान ने सिक्ख भावनाओं को ठेस पहुंचाई है। हालात की नाज़ुकता दैखते हुए हरीश रावत ने सार्वजनिक माफी मांग ली है। पंजाब संवेदनशील राज्य है तथा राजनेताओं को सोच समझ कर बयानबाज़ी करनी चाहिए। छत्तीसगढ में टी.एस. सिंहदिओ से भूपेश वघेल को लगातार खतरा बना हुआ है। फिर सुश्री मायावती भी इस खेल में सक्रिय हैं। असुदुदीन ओवैसी की ऐआईएमआईऐम के साथ उत्तर प्रदेश में सपा का चुनावी गठबंधन हो चुका है। सलमान खुर्शीद, वरिष्ठ कांग्रेस नेता उत्तर प्रदेश कांग्रेस में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। कांग्रेस को उत्तरप्रदेश में बहुत संघर्ष करना होगा। प्रियंका गांधी वाड्रा, कांग्रेस महासचिव, उत्तर प्रदेश इकाई में सक्रिय हैं। परन्तु संगठनात्मक रूप से कांग्रेस काफी कमज़ोर है। कहने को तो जनता का हित ही राजनीतिक स्वरूप होना चाहिए। परन्तु कई वर्षो से आया-राम गया-राम की राजनीति ने नागरिक अधिकारों का हनन किया है। क्या मुद्दे हैं? क्या घोषणा-पत्र है? इसका कोई महत्व नहीं है। कांग्रेस के गया-राम, भाजपाई आया-राम हैं। चुनावी गणित ही मुख्य उद्देश्य है। सर्वोच्च न्यायालय के एस.आर. बोमाई निर्णय का अनेक बार उलंघन हुआ है। ऐंटी डिसफेक्शन ला, में चुनाव उपरांत एक जुट, बहुमत प्राप्त दल से मिलकर सरकार में मंत्री बन जाते हैं। चुनावी शंखनाद बज चुका है। देखना है कौन विजयी होगा और कौन पराजित। वैसे तो जो जीता वही सिकंदर। ब्रिटिश प्रधान मंत्री विंस्टन चर्चिल ने सही फ़रमाया था, "पॉलिटिशियनज़ आर स्ट्रेंज बैड फैलोज़"! साम दाम दंड भेद, सभी को दाव पर लगा दिया गया है। जनता को सूझबूझ कर अपने निर्णय लेने चाहिए।
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